विनय मित्तल चाहें तो ख़त्म हो
सकता है रेलवे के जनसंपर्क विभाग
के साथ हो रहा सौतेला व्यवहार
भारतीय रेलवे एकल प्रबंधन के अंतर्गत विश्व का दूसरा और एशिया का सबसे बड़ा संगठन है. पब्लिक इंटरप्राइजेज का इससे बड़ा उदहारण पूरे भारत में और कोई नहीं है. रोजाना 2 करोड़ से ज्यादा यात्रियों और लगभग 1.50 करोड़ टन माल भारतीय रेलवे अपने लगभग 66000 रूट किलोमीटर पर स्थित 8500 स्टेशनों के माध्यम से प्रतिदिन परिवहन करती है. पूरे भारत के यात्रियों की सेवा करने वाले इस विशाल जन संगठन में जनसंपर्क का कार्य करने वालों के कैरियर की स्थिति बहुत ख़राब है. कहा तो यह भी जाने लगा है कि अगर किसी से सात जन्मों की पुरानी दुश्मनी निकालनी हो तो उसे रेलवे के जनसम्पर्क विभाग में ज्वाइन करने का मशवरा दे दो. कुछ ही दिन में न तो वह जीने के लायक रह जाएगा और न मरने के.. केंद्र सरकारके विभिन्न विभागों में भारतीय रेलवे ही एक ऐसा संगठन रहा है जिसने 1950 में ही जनसंपर्क के महत्व को समझ लिया था और उसी समय से रेलवे में जनसंपर्क विभाग की स्थापना की गयी थी. परन्तु यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज 63 वर्षों के बाद भी इस विभाग को मुख्य धारा में नहीं लाया जा सका है. इस विभाग में कार्यरत अधिकारियों और कर्मचारियों की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है. न तो इनके पदों की संख्यां बढाई गई है, और न ही प्रमोशन के अवसर बढ़ाये गए हैं. लोग वर्षों से एक ही पद पर काम करते हुए हताश और निराश हो रहे हैं. अब तो मुख्य जनसंपर्क अधिकारियों के पद पर दूसरे विभागों के अधिकारियों को लाकर ऊपर बैठाया जाने लगा है.
इस विभाग में नियमित तौर पर पूरी भारतीय रेल में जनसंपर्क अधिकारियों (पीआरओ) के सिर्फ 50 पद हैं, जबकि सीनियर पीआरओ के मात्र 3 पद ही हैं, इसमें भी रेलवे बोर्ड कभी 3 बताता है तो कभी 5, और उसके ऊपर जेएजी यानि मुख्य जनसंपर्क अधिकारी (सीपीआरओ) में 11 पद बताए जाते हैं. इसका मतलब यह है कि जब पीआरओ और सीनियर पीआरओ ही नहीं बन पाएँगे, तो उसके आगे जाना तो इनके लिए संभव ही नहीं है, क्योंकि वह रेगुलर बेसिस पर प्रमोटेड नहीं हैं. इस तरह पदों का वितरण किस आधार पर किया गया है, यह तो किसी की भी समझ से परे है. इसका नतीजा यह है कि पीआरओ के पद पर यहाँ एक - एक अधिकारी 16-18 सालों से काम कर रहा है. अगर किसी को सीनियर पीआरओ में पोस्ट भी किया गया है तो वह तदर्थ (एडहाक) आधार पर किया गया है, जिससे कि आगे उसे कोई प्रमोशन मिलने में कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है.
एक बहुत बड़ी विडम्बना यह भी है कि जहाँ दूसरे सभी विभागों में पदों का अपग्रेडेशन किया गया है, वहीं इतने सालों के बाद भी इस विभाग की तरफ किसी ने झांक कर देखने की भी ज़रुरत नहीं समझी. इसका परिणाम यह हुआ है कि इस डिपार्टमेंट के लोगों को प्रमोशन रेगुलर आधार पर नहीं मिला, जबकि दूसरे विभागों के अधिकारी यहाँ आकार यहाँ की पोस्टों पर शान से विराजमान हैं. एक और हास्यास्पद बात यह है कि रेलवे में पब्लिसिटी इंस्पेक्टर के पद के लिए तो पत्रकारिता की डिग्री हो ना ज़रूरी है, लेकिन उसी विभाग का मुखिया अर्थात मु ख्य जनसंपर्क अधिकारी बनने के लिए यह कोई ज़रूरी शर्त नहीं है. आज के दौर में जहाँ हर डिपार्टमेंट में, वहां का चाहे छोटा कर्मचारी हो या बड़ा अधिकारी, सभी के लिए प्रोफेशनल डिग्री ज़रूरी है, वहां इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है? कितने सारे मंत्री आये और चले गए, सभी को मीडिया में बढ़िया पब्लिसिटी चाहिए, उनका बड़ा - बड़ा फोटो छपना चाहिए, रेलवे में चल रहे कार्यों के बारे में भरपूर प्रचार चाहिए, जो यह विभाग बखूबी करता आरहा है, लेकिन इस विभाग के लोगों की क्या समस्या है, किसी ने एक बार भी अब तक इस पर विचार नहीं किया. स्व. माधव राव सिंधि या एकमात्र ऐसे रेल मंत्री थे जिन्होंने भारतीय रेल में न सिर्फ जनसंपर्क विभाग के महत्व को स मझा था, बल्कि यहाँ के नए कर्मचारियों के लिए कुछ नए पद भी ब नाए थे, लेकिन उनके पश्चात किसी भी रेल मंत्री ने न तो कर्मचा रियों और न ही अधिकारियों के नए पद बनाये, न ही इस विभाग को मजबूती प्रदान करने की कोई कोशि श की. वहीँ दूसरी ओर केंद्रीय म त्रालयों एवं सार्वजनिक उपक्रमो में जनसंपर्क विभाग के पद अब महाप्रबंधक स्तर तक पहुँच गए हैं और उसमे सिर्फ जनसंपर्क विभाग के लोग ही पदस्थ हो सकते हैं, दूसरे विभागों के नहीं !
एक और बहुत बड़ी समस्या यह है कि वर्तमान में अधिकतर जनसंपर्क अधिकारियों की औसत आयु लगभग 40-45 वर्ष है और वह अबतक लगभग 15 वर्षों की गजटेड सर्विस जूनियर स्केल में पूरी कर चुके हैं. तथापि अभी भी वे जूनियर स्केल में ही हैं, जबकि यहीं अन्य विभागों के अधिकारी जेएजी में पहुँच चुकें हैं. ऐसी स्थिति में वह अपनी आगे की 15-20 साल की बाकी सर्विस आगे बिना कि सी प्रोन्नति के किस तरह कर पाएँगे? यह एक अत्यंत चिंताजनक विषय है, क्योंकि उनको अपने सामने अपना कोई भविष्य दिखाई नहीं दे रहा है. इस गंभीर समस्या को प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन के सामने भी कई बार उठाया गया, लेकिन फेडरेशन की तरफ से भी हर बार सिर्फ हवा में ही बातें की जाती रही हैं. एक सुझाव यह भी दिया गया था कि चूँकि जनसं पर्क विभाग का कार्य ट्रैफिक डिपार्टमेंट से, खासतौर पर वाणिज्य विभाग से, ज्यादा सम्बंधित है, इसलिए इसे ट्रैफिक डिपार्टमेंट के साथ 'इंटर से सीनियारिटी' देकर समाहित कर दिया जाये, लेकिन वहां भी नतीजा अब तक शून्य ही रहा है.
पिछले कुछ वर्षों से रेलवे बोर्ड द्वारा रेलवे की अच्छी छवि बनाने (इमेज बिल्डिंग) पर अत्यंत जोर दिया जा रहा है, जिससे जनसंपर्क विभाग का काम बहुत ज्यादा बढ़ गया है. इस काम को इन सारी समस्याओं के बावजूद इस विभाग द्वारा बखूबी अंजाम दिया जा रहा है. अन्य केंद्रीय मंत्रालयों का आंकलन किया जाये, तो यह स्पष्ट होता है कि हर प्रकार की मीडिया में रेलवे की ख़बरों को सबसे ज्यादा प्रमुखता मिलती है, चाहे वो अच्छी हो या ख़राब, अगर अच् छा काम होगा तो खबरें अच्छी ज़रूर छपेंगी और अगर काम ख़राब होगा, तो उसे कोई भी आज के इस संचार और मीडिया के युग में जबरदस्ती अच्छा नहीं बना सकता. श्री विनय मित्तल, अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड, का इस समय रेलवे की इमेज बिल्डिंग पर काफी जोर है और वे स्वयं इस विषय पर काफी रूचि लेते हैं, उनका कार्यकाल भी काफी लम्बा है, अगर वह चाहें तो इस विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए बहुत कुछ कर सकते हैं, जिससे कि न सिर्फ इस विभाग के साथ वर्षों से चली आ रही सौतेले व्यवहार की यह समस्या दूर हो सकती है, बल्कि रेलवे का यह जनसंपर्क विभाग और भी सशक्त हो सकता है. जब समस्या रेलवे जैसे कल्याणकारी संगठन की साफ - सुथरी छवि पूरे देश और करोड़ों रेलयात्रियों के सामने रखने वालों की हो, तो थोड़ा सा अधिकार तो उनका भी बनता है, अगर इसे दिमाग के साथ - साथ दिल से भी सुलझाने की कोशिश और थोड़ी सी पहल बिना भेद - भाव के की जा ये, तो यह समस्या इतनी भी बड़ी नहीं है कि श्री विनय मित्तल इसे सुलझा नहीं सकते..!
पिछले 63 वर्षों में रेलवे का आकार बहुत बढ़ गया, यात्रियों की संख्या कई गुना बढ़ गयी, नए - नए जिला स्तर पर नए - नए और हजारों की संख्या में समाचार पत्र खुल गए, नए - नए सेटेलाईट चैनल्स आ गए, केबल चेनल्स खुल गए, तमाम समाचार एजेंसियां खुल गईं. मास मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया के नए - नए श्रोत आ गए. परन्तु रेलवे का जनसंपर्क विभाग जस का तस ही है. जबकि जनसंपर्क विभाग का काम कई गुना ज्यादा बढ़ गया. इस विभाग पर इतना दबाब बढ़ चुका है कि अगर समय रहते इस विभाग को दुरस्त नहीं किया गया तो स्थिति बहुत ख़राब हो सकती है. एक तरफ रेलवे का विस्तार और दूसरी तरफ मीडिया का बढ़ता दबाव, दोनों तरफ से दवाब ही दबाव है. उस पर से कोई प्रमोशन नहीं, ऐसी स्थिति में इतना ज्यादा तनाव इस विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों पर है कि उसे व्यक्त कर पाना भी इनके लिए असंभव होता जा रहा है. पदों के वितरण में जैसा मजाक इस डिपार्टमेंट के अलावा शायद ही किसी अन्य डिपार्टमेंट में किया गया है. पूरे भारत में किसी अन्य विभाग के साथ शायद ही ऐसा किया गया होगा. सामान्यतया पदों की जो रूपरेखा बनाई जाती है उसमे सबसे पहले नीचे वाले पदों की संख्या ज्यादा रहती है एवं उसके ऊपर कम तथा उसके ऊपर और कम. परन्तु रेलवे के इस जनसंपर्क विभाग में एक विचित्र तरीके से पदों का वितरण किया गया है, जिसे समझ पाना अच्छे - अच्छे लोगों के वश की बात नहीं है.
इस विभाग में नियमित तौर पर पूरी भारतीय रेल में जनसंपर्क अधिकारियों (पीआरओ) के सिर्फ 50 पद हैं, जबकि सीनियर पीआरओ के मात्र 3 पद ही हैं, इसमें भी रेलवे बोर्ड कभी 3 बताता है तो कभी 5, और उसके ऊपर जेएजी यानि मुख्य जनसंपर्क अधिकारी (सीपीआरओ) में 11 पद बताए जाते हैं. इसका मतलब यह है कि जब पीआरओ और सीनियर पीआरओ ही नहीं बन पाएँगे, तो उसके आगे जाना तो इनके लिए संभव ही नहीं है, क्योंकि वह रेगुलर बेसिस पर प्रमोटेड नहीं हैं. इस तरह पदों का वितरण किस आधार पर किया गया है, यह तो किसी की भी समझ से परे है. इसका नतीजा यह है कि पीआरओ के पद पर यहाँ एक - एक अधिकारी 16-18 सालों से काम कर रहा है. अगर किसी को सीनियर पीआरओ में पोस्ट भी किया गया है तो वह तदर्थ (एडहाक) आधार पर किया गया है, जिससे कि आगे उसे कोई प्रमोशन मिलने में कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है.
एक बहुत बड़ी विडम्बना यह भी है कि जहाँ दूसरे सभी विभागों में पदों का अपग्रेडेशन किया गया है, वहीं इतने सालों के बाद भी इस विभाग की तरफ किसी ने झांक कर देखने की भी ज़रुरत नहीं समझी. इसका परिणाम यह हुआ है कि इस डिपार्टमेंट के लोगों को प्रमोशन रेगुलर आधार पर नहीं मिला, जबकि दूसरे विभागों के अधिकारी यहाँ आकार यहाँ की पोस्टों पर शान से विराजमान हैं. एक और हास्यास्पद बात यह है कि रेलवे में पब्लिसिटी इंस्पेक्टर के पद के लिए तो पत्रकारिता की डिग्री हो
एक और बहुत बड़ी समस्या यह है कि वर्तमान में अधिकतर जनसंपर्क अधिकारियों की औसत आयु लगभग 40-45 वर्ष है और वह अबतक लगभग 15 वर्षों की गजटेड सर्विस जूनियर स्केल में पूरी कर चुके हैं. तथापि अभी भी वे जूनियर स्केल में ही हैं, जबकि यहीं अन्य विभागों के अधिकारी जेएजी में पहुँच चुकें हैं. ऐसी स्थिति में वह अपनी आगे की 15-20 साल की बाकी सर्विस आगे बिना कि
पिछले कुछ वर्षों से रेलवे बोर्ड द्वारा रेलवे की अच्छी छवि बनाने (इमेज बिल्डिंग) पर अत्यंत जोर दिया जा रहा है, जिससे जनसंपर्क विभाग का काम बहुत ज्यादा बढ़ गया है. इस काम को इन सारी समस्याओं के बावजूद इस विभाग द्वारा बखूबी अंजाम दिया जा रहा है. अन्य केंद्रीय मंत्रालयों का आंकलन किया जाये, तो यह स्पष्ट होता है कि हर प्रकार की मीडिया में रेलवे की ख़बरों को सबसे ज्यादा प्रमुखता मिलती है, चाहे वो अच्छी हो या ख़राब, अगर अच्
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