Thursday, April 12, 2012


सेवानिवृत्ति के बाद पदाधिकारी बने रहने 

का कोई सवाल ही नहीं है - जे. पी. सिंह 

मुंबई : सेवानिवृत्ति के बाद इंडियन रेलवे प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन (आईआरपीओएफ) का पदाधिकारी बने रहने अथवा सेवानिवृत्त अधिकारियों को पदाधिकारी बनाए जाने का एक शगूफा छोड़ा गया है. जिससे आजकल भारतीय रेल के तमाम प्रमोटी अधिकारियों में एक प्रकार की खिन्नता देखी जा रही है और इस शगूफे पर वह अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं. उनका कहना है कि पिछले पांच - छह सालों के दौरान एक पदाधिकारी के कारण वैसे ही फेडरेशन की सारी गरिमा मिट्टी में मिल गई है, और लगभग हर जोन में गंदी राजनीति फ़ैल गई है तथा फेडरेशन की अधिकतर कार्रवाई झूठ पर आधारित हो गई है. ऐसे में अगर वर्तमान महासचिव जैसे झूठों के सरताज पदाधिकारी को सेवानिवृत्ति के बाद भी पदाधिकारी बनाए रखा गया, तो फेडरेशन की बची-खुची अस्मिता भी धूल में मिल जाएगी. इस मुद्दे पर 'रेलवे समाचार' द्वारा जब यह पूछा गया कि क्या ऐसा कोई विचार फेडरेशन में चल रहा है, तो आईआरपीओएफ के अध्यक्ष श्री जे. पी. सिंह ने इसका सिरे से खंडन करते हुए कहा कि ऐसा कोई विचार नहीं चल रहा है. उन्होंने यह भी कहा कि सेवानिवृत्ति के बाद पदाधिकारी बने रहने या सेवानिवृत्त अधिकारी को पदाधिकारी बनाए जाने का कोई सवाल ही नहीं है. सबसे पहले वे स्वयं इस विचार के विरोधी हैं. 

श्री जे. पी. सिंह ने आगे बताया कि इलाहबाद में 15 - 16 मार्च को हुई ईसीएम की दूसरे दिन की बैठक समाप्त होने के बाद एक सदस्य ने इस पर अवश्य कुछ विचार व्यक्त किया था. उन्होंने कहा कि उसका यह विचार बैठक का हिस्सा नहीं था. तथापि उक्त सदस्य के यह विचार व्यक्त करते ही उस पर वहां उपस्थित सभी अधिकारियों ने तुरंत इसे सिरे से ख़ारिज कर दिया था. उसके बाद यह बात वहीं ख़त्म हो गई थी. श्री सिंह का कहना था कि कुछ लोग हैं जो बात का बतंगड़ बनाते रहते हैं. उन्होंने आगे यह भी कहा कि इस मुद्दे पर कोई भी अधिकारी सहमत नहीं होगा और सबसे पहले वह खुद इस तरह के किसी विचार या प्रस्ताव का समर्थन नहीं करेंगे.  उन्होंने बताया कि सबसे लम्बे समय तक निर्विरोध निर्वाचित होते रहे पूर्व महासचिव श्री के. हसन को सेवानिवृत्ति के बाद फेडरेशन का महासचिव बनाए रखने पर सहमति नहीं हो पाई थी, जबकि तत्कालीन रेलमंत्री उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद महासचिव पद पर बने रहने की मंजूरी देने को तैयार थे, मगर प्रमोटी अधिकारी इसके लिए सहमत नहीं हुए थे और तब गोरखपुर में हुई फेडरेशन की सर्वसाधारण सभा में इसका प्रस्ताव गिर गया था. 

बहरहाल, श्री जे. पी. सिंह की इस स्पष्टोक्ति के बाद अब यह विचार यहीं ख़त्म हो जाना चाहिए. वैसे भी सभी प्रमोटी अधिकारी श्री सिंह का उनकी आदर्शवादिता और ईमानदारी के लिए बहुत सम्मान करते हैं. तमाम प्रमोटी आफिसर निर्विवाद रूप से यह मानते हैं कि फेडरेशन में उनके रहने की वजह से ही वे महासचिव के झूठ, गलतबयानी और गंदी राजनीति के साथ ही उनके तमाम संदिग्ध कार्य-व्यवहार का खुलकर विरोध नहीं कर पाते हैं. उनके मन में फेडरेशन के अध्यक्ष श्री जे. पी. सिंह के प्रति गहरे सम्मान की भावना है, क्योंकि वह कभी झूठ नहीं बोलते हैं, और न ही कभी किसी को दिग्भ्रमित करने वाला कोई बयान जारी करते हैं. उनको कोई निर्णय लेने में भी देर नहीं लगती है. वह अनावश्यक कभी किसी विवाद में भी नहीं पड़ते हैं, और न ही कभी कोई विवाद पैदा करते हैं. उनका कहना है कि श्री सिंह अपने ईमानदार आचरण एवं पारदर्शी कार्य-व्यवहार के कारण ही रेलवे बोर्ड की बैठकों में रेलों में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा कार्यालयीन कामकाज में अनियमितता पर निर्भय होकर अपना बेबाक बयान देने में सक्षम होते हैं. जो कि बहुत कम पदाधिकारियों और अधिकारियों में देखा जाता है. 

तथापि श्री सिंह के प्रति उपरोक्त अपनी तमाम सदभावना के बावजूद लगभग सभी जोनो के जोनल पदाधिकारियों और प्रमोटी अधिकारियों की उनसे यह अपेक्षा है कि वे फेडरेशन की अगली सर्वसाधारण सभा नियत समय पर जुलाई में ही करवाने की व्हिप जारी करें. क्योंकि हर साल जनवरी - फरवरी में होने वाली यह सर्वसाधारण सभा (एजीएम) खिसकते - खिसकते अब जुलाई में पहुँच गई है. और अब इसे इस साल जुलाई से भी छह महीने आगे खिसकाकर दिसंबर में करवाने की तैयारी की जा रही है, जो कि अनैतिक है. उनका मानना है कि यदि श्री सिंह चाहें तो यह एजीएम भी अपने नियत समय पर हो सकती है. इस मुद्दे पर भी 'रेलवे समाचार' ने श्री जे. पी. सिंह से उनका विचार जानना चाहा, इस पर श्री सिंह का कहना था कि वह आज ही पद छोड़ने को तैयार हैं, बशर्ते कि कोई आगे आए और जिम्मेदारी संभाल ले. श्री सिंह का आगे कहना था कि यदि कोई पदाधिकारी सेवानिवृत्त हो रहा है और वह चाहता है कि उसकी सेवानिवृत्ति के आस-पास फेडरेशन की भी बैठक रख ली जाए, तो इसमें उन्हें कोई खास बुराई नजर नहीं आती है, तथापि उनका निजी तौर पर यह मानना है कि एजीएम अपने नियत समय पर ही होनी चाहिए और ऐसा करने के लिए जल्दी ही वह अपने पदाधिकारियों से बात करेंगे. 
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Friday, April 6, 2012

हाई कोर्ट को संयम बरतने की जरूरत..!

 हाल ही में एक मामले की सुनवाई के दौरान मुंबई हाई कोर्ट ने रेलवे प्रोटेक्शन फ़ोर्स (आरपीएफ) के सम्बन्ध में "रेलवे डिसत्रक्तिव फ़ोर्स" (Railway Distructive Force) जैसी एक भ्रामक टिप्पणी की है, जिससे करीब 70 हजार जवानों की यह फ़ोर्स काफी उद्वेलित है. उनमें और उनके प्रशासनिक अधिकारियों में इस टिप्पणी पर हाई कोर्ट के प्रति न सिर्फ काफी आक्रोश व्याप्त हुआ है, बल्कि वह इससे काफी हतोत्साहित और अपमानित भी महसूस कर रहे हैं. हाई कोर्ट की इस टिप्पणी से जहाँ एक ओर इस मामले में लिप्त रहे लोग यह सोचकर खुश हो रहे हैं कि सिर्फ वही ऐसे नहीं हैं, बल्कि सभी उन्हीं की तरह हैं, क्योंकि उक्त टिप्पणी सभी के बारे में की गई है. इससे मामले में लिप्त रहे लोगों का नहीं, बल्कि पूरी फ़ोर्स का सिर नीचा हुआ है. यदि हाई कोर्ट ने स्पष्ट रूप से अपनी यह टिप्पणी सिर्फ मामले में लिप्त रहे लोगों तक सीमित की होती, तो सिर्फ वही लोग हतोत्साहित हुए होते और दूसरों के सामने उनका ही सिर नीचा हुआ होता. बाकी लोगों को अपमानित महसूस नहीं करना पड़ता. तथापि उद्वेलित और हतोत्साहित आरपीएफ जवानों को आरपीएफ एसोसिएशन के प्रबुद्ध नेतृत्व ने यह कहकर समझाया कि हाई कोर्ट ने यह टिप्पणी पूरी फ़ोर्स के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि मामले से सम्बंधित उन कुछ लोगों के खिलाफ की है, जो मामले में कहीं न कहीं लिप्त रहे हैं, तब जाकर आरपीएफ के जवान शांत हुए और उनको कुछ राहत महसूस हुई है..  

मुंबई हाई कोर्ट ने उक्त टिप्पणी कुर्ला स्टेशन पर फर्जी बेल बांड (जमानत पत्र) कांड पर दायर एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान की है. हाई कोर्ट द्वारा की गई यह टिप्पणी निश्चित रूप से न सिर्फ भ्रामक है, बल्कि जनसामान्य में इससे एक गलत सन्देश भी जाएगा. हालाँकि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट और कुछ अन्य हाई कोर्टों ने भी पुलिस आदि के बारे में ऐसी टिप्पणियां की हैं. मगर यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और तमाम जूडीसियरी को ऐसे संवेदनशील मामलों में थोड़ा संयम बरतने की जरूरत है. इस तरह की टिप्पणियां पूरी फ़ोर्स अथवा पूरे समाज के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि यदि अत्यंत आवश्यक ही हो तो, सिर्फ मामले से सम्बंधित लोगों के ही बारे में की जानी चाहिए, क्योंकि किसी गलत काम अथवा गैरकानूनी कृत्य के लिए पूरी फ़ोर्स या पूरा समाज दोषी नहीं हो सकता. 

प्रस्तुत मामले में एक एनजीओ द्वारा दायर की गई याचिका पर संज्ञान लेते हुए मुंबई हाई कोर्ट ने स्वयं इस याचिका को जनहित याचिका में तब्दील किया है. परन्तु इस याचिका में उक्त एनजीओ द्वारा इस मामले से सम्बंधित तमाम वास्तविक तथ्य कोर्ट के सामने नहीं रखे गए हैं. जैसे कि इस तरह का भ्रष्टाचार अथवा गैरकानूनी कार्य किसी उच्च अधिकारी के संरक्षण के बिना नहीं हो सकता था. और प्रस्तुत मामले में यह उच्च अधिकारी था मध्य रेलवे आरपीएफ का तत्कालीन प्रमुख यानि आईजी/सीएससी/आरपीएफ/म.रे.. एनजीओ ने अपनी इस याचिका में उसे आरोपी नहीं बनाया है, जबकि उस समय म. रे. आरपीएफ में ऐसे तमाम भ्रष्टाचार और गैरकानूनी कृत्यों का प्रमुख सूत्रधार वही था, जो कि आज पदोन्नति लेकर उत्तर के एक राज्य की पुलिस का अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक बनकर बैठा हुआ है. वर्ष 2007 में हमने जब विभिन्न आरपीएफ पोस्टों से उगाही जाने वाली अवैध राशि के तमाम आंकड़े "परिपूर्ण रेलवे समाचार" में प्रकाशित किए थे, बाद में सीबीआई ने भी अपनी गहन कार्रवाई में इन तथ्यों को साबित किया है, तब इसी आईजी के इशारे पर 35 आरपीएफ इंस्पेक्टरों ने न सिर्फ क़ानूनी नोटिस भेजे थे, बल्कि इसी आईजी के दबाव में उनमे से 16 इंस्पेक्टरों ने 'परिपूर्ण रेलवे समाचार' के खिलाफ महाराष्ट्र की विभिन्न अदालतों में आरपीएफ फ़ोर्स की मानहानि करने के मामले भी दाखिल किए थे. जिनमे से कुछ अब तक चल रहे हैं और कुछ मामलों को निराधार बताकर सम्बंधित अदालतों द्वारा ख़ारिज किया जा चुका है. 

कहने का तात्पर्य यह है कि बिना उच्च अधिकारियों की शह या संरक्षण के निचले स्तर पर इस तरह का कोई भ्रष्टाचार पनप नहीं सकता, क्योंकि भ्रष्टाचार पानी की ऊपर से नीचे की तरफ बहता है. अदालतों के पास पर्याप्त अधिकार हैं कि वे मामले की तह तक जाएँ, और भ्रष्टाचार के समस्त मामलों में उच्च अधिकारियों की भूमिका और जिम्मदारी को रेखांकित करें, क्योंकि बिना ऐसा किए उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टचार को रोका नहीं जा सकेगा. निचले स्तर पर इसकी जिम्मेदारी तय करके और सजा देकर समाज और प्रशासन में फैले इस 'कोढ़' को जड़ - मूल से नष्ट नहीं किया जा सकता. मीडिया (परिपूर्ण रेलवे समाचार) ने जब ऐसे उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार को उजागर किया, तो उसे गैरजरूरी क़ानूनी मामलों में उलझा दिया गया. उक्त एनजीओ ने भी शायद इसी वजह से तत्कालीन आईजी/सीएससी/आरपीएफ/म.रे. को अपनी इस याचिका में आरोपी नहीं बनाया है, क्योंकि यदि वह ऐसा करता, तो उसे भी मीडिया (परिपूर्ण रेलवे समाचार) की ही तरह विभिन्न क़ानूनी मामलों में उलझाया जा सकता था. यहाँ यह भी ध्यान देने वाली बात है कि कुर्ला स्टेशन पर चल रहे इस गैरकानूनी और फर्जी बेल बांड कांड को उक्त एनजीओ ने नहीं, बल्कि आरपीएफ के ही कुछ जवानों और आरपीएफ एसोसिएशन के पदाधिकारियों ने ही उजागर किया था, जिसके लिए गलत तरीके से इन जवानों और पदाधिकारियों को तत्कालीन आईजी द्वारा पहले अन्यत्र ट्रांसफ़र किया गया और बाद में नौकरी से भी बर्खास्त किया गया था. उक्त आईजी के लगभग जबरन रिपैट्रीएशन के बाद ही सम्बंधित एनजीओ ने इस मामले में अदालती कार्रवाई शुरू की थी. ऐसे में पूरी आरपीएफ फ़ोर्स को डिसत्रक्तिव फ़ोर्स कहना सही नहीं है. 

तत्कालीन आईजी/सीएससी/आरपीएफ/म.रे. के समय ही उसकी नाक के नीचे छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) पर 26/11 का सबसे पहला और बड़ा आतंकवादी हमला हुआ था, जिसमे सर्वाधिक लोग मौत के घाट उतारे गए थे, मगर यह आईजी बधवार पार्क स्थित अपने घर के बाहर चार कमांडोज को तैनात करके मीठी नींद सो रहा था. यदि वह इन चारो कमांडोज को तुरंत सीएसटी भेज देता, तो यह सीएसटी पर हमलावर मात्र दो आतंकवादियों को मिनटों में मार गिरा सकते थे. किसी अदालत ने उक्त आईजी की ड्यूटी के प्रति इस घोर लापरवाही और गैरजिम्मेदारी का संज्ञान नहीं लिया. उक्त आईजी के खिलाफ भ्रष्टाचार के तमाम आरोप साबित हुए, और चार्जशीट भी देने की तैयारी हो गई, मगर तत्कालीन डीजी/आरपीएफ ने उसे सिर्फ रिपैत्रियेत (repatriate) करके मामले को रफा - दफा कर दिया. 'परिपूर्ण रेलवे समाचार' ने इन तमाम तथ्यों को उजागर किया था. 

राज्य सरकार द्वारा गठित की गई राम प्रधान कमेटी ने पूरे मुंबई शहर में अब तक के इन सबसे भयानक आतंकवादी हमलों की जांच की थी, मगर राम प्रधान कमेटी ने सीएसटी, जहाँ सबसे ज्यादा लोग आतंकवादियों की बर्बर गोलियों का शिकार हुए थे, जाकर यह देखने की भी जरूरत नहीं महसूस की थी कि मुंबई महानगर में हुआ सबसे पहला और सबसे बड़ा आतंकवादी हमला कहाँ और कैसे हुआ था? राम प्रधान कमेटी ने रेलवे परिसर (सीएसटी) को केंद्र का क्षेत्र मानकर वहां जाना जरूरी नहीं समझा, जबकि वह स्थान भी राज्य के दायरे में है और मारे गए लोग भी राज्य के ही नागरिक / रहिवासी थे. कानून - व्यवस्था बनाए रखने का अधिकार राज्य अपने दायरे में होने का दावा करते हैं, तथापि किसी कोर्ट ने इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया? 

यह माना जा सकता है कि हाई कोर्ट की उक्त टिप्पणी के पीछे उसकी मंशा जरूर वैसी ही रही होगी, जैसी कि आरपीएफ एसोसिएशन के परिपक्व नेतृत्व ने उद्वेलित आरपीएफ जवानों को समझाकर शांत किया. हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी टिप्पणियों में इतनी ही स्पष्टता बरतनी चाहिए. वरना उनकी देखा - देखी निचली अदालतें भी इस प्रकार का गैरजिम्मेदाराना आचरण कर सकती हैं. विगत में यह देखने में आया है कि जूडीसियरी भी कदाचार से मुक्त नहीं है. यहाँ तक कि उच्च जूडीसियरी पर भी इस तरह के आरोप लगते रहे हैं. और आज भी भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ इसी प्रकार के कदाचार की जांच चल रही है. जबकि इससे पहले कुछ न्यायाधीशों के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाया जा चुका है. इनमे से कुछ ने इस प्रकार के प्रस्ताव पर बहस से पहले अपना इस्तीफा देकर संसद और जूडीसियरी की गरिमा को बचाया, तो कुछ ने उसे तार-तार भी किया है. परन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि देश की पूरी जूडीसियरी ही भ्रष्ट या कदाचारी है. 

इसी प्रकार राज्यों की पुलिस का हर पुलिसवाला भ्रष्ट या कदाचारी नहीं है, कुछ पुलिसवाले ऐसे अवश्य हो सकते हैं, मगर उन कुछ पुलिसवालों के कदाचार या भ्रष्टाचार अथवा गलत आचरण के लिए पूरी पुलिस फ़ोर्स को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. कभी जस्टिस श्रीकृष्ण अय्यर ने टिप्पणी की थी कि खाकी वर्दी में पुलिस वाले डकैत हैं, तो क्या माननीय पूर्व न्यायाधीश की इस टिप्पणी से सभी पुलिस वाले सदाचारी हो गए ? ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि इसका कारण यह है कि पुलिस के उच्चाधिकारियों का ऐसी टिप्पणियों से कुछ नहीं बनता - बिगड़ता. जबकि सारा दुराचार उनके कहने या इशारे पर ही होता है. 

आरपीएफ के सन्दर्भ में यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि यह देश कि सर्वसामान्य जनता के सर्वाधिक संपर्क में आने वाली फ़ोर्स है और ट्रेनों में चलने वाले प्रतिदिन दो - सवा दो करोड़ यात्रियों के संपर्क में आने से मात्र दो महीनो में यह देश की सवा सौ करोड़ आबादी के संपर्क में आ जाती है. देश की ऐसी अन्य कोई फ़ोर्स नहीं है जो इस कदर जनसामान्य के सीधे संपर्क में आती हो. ऐसे में यात्रियों की सुरक्षा में रात - दिन चलती गाड़ियों में लगे रहने वाले आरपीएफ जवानों को तब गुस्सा आ सकता है अथवा यात्रियों और आरपीएफ कर्मियों के बीच मारामारी या गोलीबारी की नौबत भी आ सकती है, जब कोई यात्री या यात्रियों का समूह आरपीएफ जवानों को हाई कोर्ट की उक्त टिप्पणी का हवाला देते हुए चिढ़ा रहा होगा.. जहाँ तक सेना का सन्दर्भ है, जिसके बारे में आजकल बहुत कुछ दुष्प्रचार हो रहा है. वह चाहे सेनाध्यक्ष की अति-महत्वाकांक्षा या उनकी निहित्स्वार्थपरता हो, अथवा हथियार आपूर्ति लाबी के कारण हो, मगर गलत कारणों से आजकल सेना और सेनाध्यक्ष दोनों चर्चा में हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि वह भ्रष्ट हैं या पूरी सेना और पुलिस कदाचारी हो गई है, यदि ऐसा हो गया, तो देश की सुरक्षा और तमाम प्रशासन ही चौपट हो जाएगा तथा पूरा लोकतंत्र ही खतरे में पड़ जाएगा. 

किसी समाज का कोई एक व्यक्ति कदाचारी, भ्रष्ट या हत्यारा - बलात्कारी हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि वह पूरा समाज ही ऐसा है, जिसके लिए उस पूरे समाज के खिलाफ कोई गलत टिप्पणी की जाए या उसे दोषी ठहराया जाए. मीडिया में भी बहुत से गलत या भ्रष्ट लोग हो सकते हैं, और हैं भी, मगर यह कहा जाए कि पूरा मीडिया ही भ्रष्ट हो गया है, तो यह कतई उचित नहीं होगा. यही विवाद आजकल माननीय सांसदों को लेकर भी पूरे देश में चल रहा है, इसका मतलब यह नहीं है कि राजनीति में सारे लोग ही ख़राब या भ्रष्ट हैं.. यदि ऐसा होता, तो क्या यह संसदीय लोकतंत्र इन 66 सालों तक भी टिका रह पाता? मगर 'अति सर्वत्र वर्जयेत' की तर्ज पर यह जरूर कहा जा सकता है कि अब लोकतंत्र के इन चारों स्तंभों के गरिमामय आचरण में काफी गिरावट आ गई है, और समय रहते अगर इन चारों स्तंभों ने अपनी - अपनी गरिमा को पुनर्स्थापित नहीं किया, तो वह दिन भी दूर नहीं है, जब यह तमाम व्यवस्था इनके अपने ही आचरण से डगमगाने लगेगी. 
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Thursday, April 5, 2012


NOW THE SEMINAR WILL BE HELD ON 9TH MAY


National Seminar on
"RESURRECTION OF INDIAN RAILWAYS - AN INTROSPECTION
NOW THE SEMINAR WILL BE HELD ON 9TH MAY

Dear Patron, 

It is a matter of great pleasure and pride to inform you that 'Paripurna Railway Samachar' is now in the 15th year of its publication after earning huge appreciation from ever expanding readership for its accurate and unsparing coverage of contemporary issues and concerns pertaining to stake holders of Indian Railways. Valuable comments from readers and other official quarters indicated creation of awareness and interest, that often resulted in fruitful investigation as well as redressal of problems and grievances. 

Each issue of 'Paripurna Railway Samachar' helped in highlighting the shortcomings inherent in the system. 'Paripurna Railway Samachar' has in fact, become synonymous with Railway ethos and culture. Encouraged by the enthusiasm shown by Railway personnel and general public in patronizing 'Paripurna Railway Samachar', steps have been taken to turn 'Paripurna Railway Samachar' into a National Railway fortnightly newspaper, so that the issues, topics and subjects which merit attention or redressal get taken up from all quarters and are not confined or limited to a privileged few. 

'Paripurna Railway Samachar' had organized seminars on various topics of prime importance. These seminars were attended by top brass of Railway Administration and were astounding success in terms of contents, messages, information and by the generous attendance of stakeholders at large. 

'Paripurna Railway Samachar' has now planned to organize another event to highlight the need for imbuing new life into this bulwark of India's future and economic growth so that Indian Railways may scale new heights like the bird of Phoenix. 

The focus of this National Seminar is on the "RESURRECTION OF INDIAN RAILWAYS - AN INTROSPECTION". The topic assumes significance in the present economic scenario in India and also brings relevance in the changing economic scenario across the globe. 


The Seminar will be held at 16.00 to 20.00 hrs on WEDNESDAY, 9th MAY 2012 at Yashwantrao Chavan Pratisthan Sabhagrih, Gen. J. N. Bhosale Marg, Near Mantralaya, Mumbai-400021. 

On this occasion a special issue of 'Railway Samachar' shall be brought out. Your views, thoughts, experiences and knowledge about Resurrecting this sleeping beauty, the Indian Railways and its relevance in making India a power to reckon with are earnestly solicited in the form of an ARTICLE/MESSAGE, along with your passport size photograph latest by 25th April 2012 for publishing in this issue, so that the same can be shared and appreciated by the valuable readers of 'Paripurna Railway Samachar'


Regards

Suresh Tripathi

Editor
Railway Samachar
Contact : 09869256875.
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26 अप्रैल को नहीं अब 9 मई को होगा सेमिनार 


"भारतीय रेल का पुनरुत्थान - एक चिंतन"


(RESURRECTION OF INDIAN RAILWAYS - AN INTROSPECTION)


किन्हीं अपरिहार्य कारणों की वजह से उपरोक्त विषय पर 26 अप्रैल को आयोजित होने वाले सेमिनार की तारीख को थोडा सा आगे बढ़ाया जा रहा है. अब यह सेमिनार 9 मई को होगा. सेमिनार का स्थान नहीं बदला है, यह वाय. बी. चव्हाण प्रतिष्ठान सभागृह में ही होगा. एक लम्बे अंतराल के बाद 'परिपूर्ण  रेलवे समाचार' द्वारा पिछले कई सालों से चली आ रही अपनी परंपरा का निर्वाह करते हुए इस बार एक नए और समसामयिक विषय पर राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया जा रहा है. 

इस महत्वपूर्ण और समसामयिक सेमिनार में भारतीय रेल के पांचो मान्यताप्राप्त फेडरेशनों के उच्च पदाधिकारियों सहित रेलवे बोर्ड के सभी सदस्यों और जोनल रेलों के महाप्रबंधकों को भी आमंत्रित किया गया है. इसके अलावा बाहर से भी कुछ रेल विशेषज्ञों को इसमें शामिल होने हेतु बुलाया गया है. 

यह सेमिनार वाई. बी. चव्हाण प्रतिष्ठान सभागृह, जनरल जगन्नाथ भोसले मार्ग, मंत्रालय के पास, नरीमन पॉइंट, मुंबई - 21 में 26 अप्रैल को नहीं अब 9 मई को  आयोजित किया जाएगा. 

इस बार ऐसे समसामयिक विषय को लेकर 'रेलवे समाचार' द्वारा सेमिनार का आयोजन किया जा रहा, जिससे करीब 160 साल पुरानी इस महान संस्था के 'पुनरुत्थान' के बारे में एक सार्थक चर्चा की जा सके. इसीलिए इस बार का विषय "भारतीय रेल का पुनरुत्थान - एक चिंतन"  रखा गया है. सेमिनार में बड़ी संख्या में रेलकर्मियों और यात्रियों एवं यात्री संगठनों से भाग लेने की अपील की जाती है. 


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Tuesday, April 3, 2012

विनय मित्तल चाहें तो ख़त्म हो 
सकता है रेलवे के जनसंपर्क विभाग 
के साथ हो रहा सौतेला व्यवहार

भारतीय रेलवे एकल प्रबंधन के अंतर्गत विश्व का दूसरा और एशिया का सबसे बड़ा संगठन हैपब्लिक इंटरप्राइजेज का इससे बड़ा उदहारण पूरे भारत में और कोई नहीं है. रोजाना 2 करोड़ से ज्यादा यात्रियों और लगभग 1.50 करोड़ टन माल भारतीय रेलवे अपने लगभग 66000 रूट किलोमीटर पर स्थित 8500 स्टेशनों के माध्यम से प्रतिदिन परिवहन करती हैपूरे भारत के यात्रियों की सेवा करने वाले इस विशाल जन संगठन में जनसंपर्क का कार्य करने वालों के कैरियर की स्थिति बहुत ख़राब हैकहा तो यह भी जाने लगा है कि अगर किसी से सात जन्मों की पुरानी दुश्मनी निकालनी हो तो उसे रेलवे के जनसम्पर्क विभाग में ज्वाइन करने का मशवरा दे दो. कुछ ही दिन में  तो वह जीने के लायक रह जाएगा और  मरने के.. केंद्र सरकारके विभिन्न विभागों में भारतीय रेलवे ही एक ऐसा संगठन रहा है जिसने 1950 में ही जनसंपर्क के महत्व को समझ लिया था और उसी समय से रेलवे में जनसंपर्क विभाग की स्थापना की गयी थी. परन्तु यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज 63 वर्षों के बाद भी इस विभाग को मुख्य धारा में नहीं लाया जा सका हैइस विभाग में कार्यरत अधिकारियों और कर्मचारियों की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है.  तो इनके पदों की संख्यां बढाई गई है, और  ही प्रमोशन के अवसर बढ़ाये गए हैं. लोग वर्षों से एक ही पद पर काम करते हुए हताश और निराश हो रहे हैं. अब तो मुख्य जनसंपर्क अधिकारियों के पद पर दूसरे विभागों के अधिकारियों को लाकर ऊपर बैठाया जाने लगा है


पिछले 63 वर्षों में रेलवे का आकार बहुत बढ़ गयायात्रियों की संख्या कई गुना बढ़ गयीनए नए जिला स्तर पर नए - नए और हजारों की संख्या में समाचार पत्र खुल गएनए - नए सेटेलाईट चैनल्स  गएकेबल चेनल्स खुल गए, तमाम समाचार एजेंसियां खुल गईं. मास मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया के नए - नए श्रोत  गए. परन्तु रेलवे का जनसंपर्क  विभाग जस का तस ही है. जबकि जनसंपर्क विभाग का काम कई गुना ज्यादा बढ़ गया. इस विभाग पर इतना दबाब बढ़ चुका है कि अगर समय रहते इस विभाग को दुरस्त नहीं किया गया तो स्थिति बहुत ख़राब हो सकती है. एक तरफ रेलवे का विस्तार और दूसरी तरफ मीडिया का बढ़ता दबाव, दोनों तरफ से दवाब ही दबाव है. उस पर से कोई प्रमोशन नहींऐसी स्थिति में इतना ज्यादा तनाव इस विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों पर है कि उसे व्यक्त कर पाना भी इनके लिए असंभव होता जा रहा हैपदों के वितरण में जैसा मजाक इस डिपार्टमेंट के अलावा शायद ही किसी अन्य डिपार्टमेंट में किया गया है. पूरे भारत में किसी अन्य विभाग के साथ शायद ही ऐसा किया गया होगा. सामान्यतया पदों की जो रूपरेखा बनाई जाती है उसमे सबसे पहले नीचे वाले पदों की संख्या ज्यादा रहती है एवं उसके ऊपर कम तथा उसके ऊपर और कम. परन्तु रेलवे के इस जनसंपर्क विभाग में एक विचित्र तरीके से पदों का वितरण किया गया है, जिसे समझ पाना अच्छे - अच्छे लोगों के वश की बात नहीं है. 


इस विभाग में नियमित तौर पर पूरी भारतीय रेल में जनसंपर्क अधिकारियों (पीआरओ) के सिर्फ 50 पद हैं, जबकि सीनियर पीआरओ के मात्र 3 पद ही हैं, इसमें भी रेलवे बोर्ड कभी 3 बताता है तो कभी 5, और उसके ऊपर जेएजी यानि मुख्य जनसंपर्क अधिकारी (सीपीआरओ) में 11 पद बताए जाते हैं. इसका मतलब यह है कि जब पीआरओ और सीनियर पीआरओ  ही नहीं बन पाएँगे, तो उसके आगे जाना तो इनके लिए संभव ही नहीं हैक्योंकि वह रेगुलर बेसिस पर प्रमोटेड नहीं हैंइस तरह पदों का वितरण किस आधार पर किया गया है, यह तो किसी की भी समझ से परे हैइसका नतीजा यह है कि पीआरओ के पद पर यहाँ एक - एक अधिकारी 16-18 सालों से काम कर रहा है. अगर किसी को सीनियर पीआरओ में पोस्ट भी किया गया है तो वह तदर्थ (एडहाक) आधार पर किया गया है, जिससे कि आगे उसे कोई प्रमोशन मिलने में कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है. 


एक बहुत बड़ी विडम्बना यह भी है कि जहाँ दूसरे सभी विभागों में पदों का अपग्रेडेशन किया गया है, वहीं इतने सालों के बाद भी इस विभाग की तरफ किसी ने झांक कर देखने की भी ज़रुरत नहीं समझी. इसका परिणाम यह हुआ है कि इस डिपार्टमेंट के लोगों को प्रमोशन रेगुलर आधार पर नहीं मिला, जबकि दूसरे विभागों के अधिकारी यहाँ आकार यहाँ की पोस्टों पर शान से विराजमान हैं. एक और हास्यास्पद बात यह है कि रेलवे में पब्लिसिटी इंस्पेक्टर के पद के लिए तो पत्रकारिता की डिग्री होना ज़रूरी है, लेकिन उसी विभाग का मुखिया अर्थात मुख्य जनसंपर्क अधिकारी बनने के लिए यह कोई ज़रूरी शर्त नहीं है. आज के दौर में जहाँ हर डिपार्टमेंट में, वहां का चाहे छोटा कर्मचारी हो या बड़ा अधिकारी, सभी के लिए प्रोफेशनल डिग्री ज़रूरी है, वहां इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता हैकितने सारे मंत्री आये और चले गएसभी को मीडिया में बढ़िया पब्लिसिटी चाहिए, उनका बड़ा - बड़ा फोटो छपना चाहिएरेलवे में चल रहे कार्यों के बारे में भरपूर प्रचार चाहिए, जो यह विभाग बखूबी करता रहा हैलेकिन इस विभाग के लोगों की क्या समस्या हैकिसी ने एक बार भी अब तक इस पर विचार नहीं किया. स्व. माधव राव सिंधिया एकमात्र ऐसे रेल मंत्री थे जिन्होंने भारतीय रेल में  सिर्फ जनसंपर्क विभाग के महत्व को मझा था, बल्कि यहाँ के नए कर्मचारियों के लिए कुछ नए पद भी नाए थे, लेकिन उनके पश्चात किसी भी रेल मंत्री ने न तो कर्मचारियों और  ही अधिकारियों के नए पद बनाये, न  ही इस विभाग को मजबूती प्रदान करने की कोई कोशि कीवहीँ दूसरी ओर केंद्रीय त्रालयों एवं सार्वजनिक उपक्रमो में जनसंपर्क विभाग के पद अब महाप्रबंधक स्तर तक पहुँच गए हैं और उसमे सिर्फ जनसंपर्क विभाग के लोग ही पदस्थ हो सकते हैं, दूसरे विभागों के नहीं ! 


एक और बहुत बड़ी समस्या यह है कि वर्तमान में अधिकतर जनसंपर्क अधिकारियों की औसत आयु लगभग 40-45 वर्ष है और वह अबतक लगभग 15 वर्षों की गजटेड सर्विस जूनियर स्केल में पूरी कर चुके हैं. तथापि अभी भी वे जूनियर स्केल में ही हैं, जबकि यहीं अन्य विभागों के अधिकारी जेएजी में पहुँच चुकें हैंऐसी स्थिति में वह अपनी आगे की 15-20 साल की बाकी सर्विस आगे बिना किसी प्रोन्नति के किस तरह कर पाएँगे? यह एक अत्यंत चिंताजनक विषय हैक्योंकि उनको अपने सामने अपना कोई भविष्य दिखाई नहीं दे रहा है. इस गंभीर समस्या को प्रमोटी आफिसर्स फेडरेशन के सामने भी कई बार उठाया गया, लेकिन फेडरेशन की तरफ से भी हर बार सिर्फ हवा में ही बातें की जाती रही हैं. एक सुझाव यह भी दिया गया था कि चूँकि जनसंपर्क विभाग का कार्य ट्रैफिक डिपार्टमेंट से, खासतौर पर वाणिज्य विभाग से, ज्यादा सम्बंधित है, इसलिए इसे ट्रैफिक डिपार्टमेंट के साथ 'इंटर से सीनियारिटी' देकर समाहित कर दिया जायेलेकिन वहां भी नतीजा अब तक शून्य ही रहा है. 


पिछले कुछ वर्षों से रेलवे बोर्ड द्वारा रेलवे की अच्छी छवि बनाने (इमेज बिल्डिंग) पर अत्यंत जोर दिया जा रहा है, जिससे जनसंपर्क विभाग का काम बहुत ज्यादा बढ़ गया है. इस काम को इन सारी समस्याओं के बावजूद इस विभाग द्वारा बखूबी अंजाम दिया जा रहा है. अन्य केंद्रीय मंत्रालयों का आंकलन किया जाये, तो यह स्पष्ट होता है कि हर प्रकार की मीडिया में रेलवे की ख़बरों को सबसे ज्यादा प्रमुखता मिलती है, चाहे वो अच्छी हो या ख़राब, अगर अच्छा काम होगा तो खबरें अच्छी ज़रूर छपेंगी और अगर काम ख़राब होगा, तो उसे कोई भी आज के इस संचार और मीडिया के युग में जबरदस्ती अच्छा नहीं बना सकताश्री विनय मित्तलअध्यक्षरेलवे बोर्ड, का इस समय रेलवे की इमेज  बिल्डिंग पर काफी जोर है और वे स्वयं इस विषय पर काफी रूचि लेते हैंउनका कार्यकाल भी काफी लम्बा है, अगर वह चाहें तो इस विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए बहुत कुछ कर सकते हैं, जिससे कि न सिर्फ इस विभाग के साथ वर्षों से चली  रही सौतेले व्यवहार की यह समस्या दूर हो सकती है, बल्कि रेलवे का यह जनसंपर्क विभाग और भी सशक्त हो सकता है. जब समस्या रेलवे जैसे कल्याणकारी संगठन की साफ - सुथरी छवि पूरे देश और करोड़ों रेलयात्रियों के सामने रखने वालों की हो, तो थोड़ा सा अधिकार तो उनका भी बनता हैअगर इसे दिमाग के साथ - साथ दिल से भी सुलझाने की कोशिश और थोड़ी सी पहल बिना भेद - भाव के की जाये, तो यह समस्या इतनी भी बड़ी नहीं है कि श्री विनय मित्तल इसे सुलझा नहीं सकते..! 

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